Thursday, 11 June 2015

साथियों
एक ऐसे दौर में जब सूचना क्रांति परिपक्वता की नई ऊंचाई छू रही हो, दुनिया को जानने समझने के अनंत साधन आपकी मुठ्ठी में हों, सूचना का विस्फोटक संसार आपके सामने खुला हो तो ऐसे में एक स्वाभाविक सवाल उठ खडा होता है कि फिर एक नई पत्रिका ’मेरी बकरी, मेरा गांव‘ क्यों ? और इस तरह की नई पत्रिका की सार्थकता क्या है?

इसका पहला तो जवाब यह है कि तथाकथित मुख्यधारा की मीडिया में ग्रामीण समाज और उसके असल मुद्दों के लिए कोई स्पेस नहीं है। दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि ग्रामीण समुदाय की जीविका व खाद्य सुरक्षा मुख्यतः कृषि, पशुुपालन, वन संसाधन व मजदूरी पर आधारित है। मजदूरी के बाद कृषि जीविका का सबसे बड़ा स्त्रोत है लेकिन दुर्भाग्य से आज भी गरीब भारतीय किसान खेती के लिए मानसून की ओर ही देखता है और शुष्क प्रदेश व वर्षा आधारित क्षेत्र में ये खेती ‘मौसम की मार के साथ जुआ’ सिद्ध होती है। लगातार घटते कृषि भूमि या व मानसून की बदलती स्थिति गरीबों को बुरी तरह से प्रभावित करती है। पशुुपालन भी एक हद तक कृषि पर आधारित व्यवसाय है लेकिन लघु पशुु जैसे बकरी की निर्भरता बड़े पशुु जैसे गाय-भैस से अपेक्षाकृत कम है। ऐसे में बकरी आधारित आजीविका ग्रामीण व्यवस्था की धुरी बन सकती है। कम पूंजी से शुरू होने वाले बकरी पालन व्यवसाय के माध्यम से पिछड़ी एंव भूमि विहीन वर्ग की महिलाओं के संपूर्ण ग्रामीण जीवन में एक सकारात्मक बदलाव लाया जा सकता है और बकरी को गरीबी से लड़ने के लिए एक कारगर हथियार बनाया जा सकता है।
द गोट ट्रस्ट ने अपनी छोटी सी यात्रा में ग्रामीण जीवन की इसी ऊर्जा को समझने की कोशिश की है। ‘मेरी बकरी, मेरा गांव‘ इसी यात्रा के क्रम में संवाद का एक नया मंच है। इसके जरिए हम उम्मीद और ग्रामीण उर्जा के नए किस्सों के साथ ही अपनी साझा विरासत के नए हिस्सों को भी तलाशेंगे।

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