Thursday, 11 June 2015

खूबसूरत है बकरी और पर्यावरण का रिश्ता
बकरी पालन यूं तो भारतवर्ष के लगभग प्रत्येक गांव और क्षेत्र में गरीबों की आजीविका का संपूरक साधन सदियों से है। अपनी उल्लेखनीय विशेषताओं के कारण बकरी पालन महिला आधारित आजीविका व् आय श्रोत में ग्रामीण क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।
    मुख्यधारा के सरकारी व गैर सरकारी संस्थाएं तथा विद्वान समूह हालांकि इसके योगदान के सराहते है तथा दबी आवाज में बकरी पालन के योगदान को स्वीकार करते है लेकिन समाज के कतिपय लोगों व् संस्थाओं में बकरी पालन और पर्यावरण के रिश्ते में किंचित भ्रम व्याप्त है।    बकरी को पेड़ पौधों को नष्ट करने वाला पशु मानकर कई संस्थाएं तथा समूह इसे “जंगल नाशक” “पर्यावरण विनाशक” जैसे विशेषणों से संबोधित करते है। सर्वप्रथम हमें इस सत्य को स्वीकार करना होगा कि बकरी पर्यावरण का हिस्सा है जिस तरह बाकी पशु और मानव पर्यावरण के हिस्से हैं। किसी भी पशु के संख्या में असंतुलित वृद्धि जीवन चक्र को ऋणात्मक रूप से प्रभावित कर सकता है और ये तथ्य बकरी के लिए भी उतना ही सही है। अतः हर विकास परियोजना को किसी भी पशु की संख्या को उपलब्ध संसाधन के हिसाब से संतुलित करना आवश्यक है। इसका एक तात्पर्य यह भी है कि किसी पशु को प्रतिबंधित करना भी पारिस्थितिकी को उतना ही नुकसान पंहुचा सकता है जितना उसका अधिक होना , बकरी भी पारिस्थितिकी संतुलन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसकी चारा प्राप्ति का तरीक प्रकृति ने इस तरह बनाया है कि ये झाडी के वृद्धि को संतुलित करता है ताकि झाडी अनुचित रूप से कमज़ोर पेड़ न बन सके। यहां यह भी समझना जरूरी है के बकरी जमीन से छः इंच ऊपर की पत्ती को खाना ज्यादा पसंद करता है और भेड़ से इतर ये जमीन पर उगे घास खाना उतना पसंद नहीं करती।
    जंगलों में तीन तरह की वनस्पति होती है , लता जो जमीन पर रेंगकर पौधों के सहारे ऊपर जाती है , झाडीयां जो 3 से 5 फीट की उचाई पर फैलकर जमीन की नमी संरक्षित कराती और पेड़ जो सामन्यतः 10 फीट या उससे ऊंचे होते है। बकरी मुख्यतः अपना चारा झाड़ी, लता तथा पेड़ से गिरी पत्तियों से प्राप्त करती है , इस तरह ये झाड़ी के विकास को नियंत्रित करती है। 10 फीट से ऊपर के पेड़ पर बकरी का चढ़ना लगभग असंभव है । सवाल ये भी है कि जबतक जमीन पर पर्याप्त चारा होगा , पशु असामन्य व्यवहार प्रदर्शित नहीं करता है । जबतक पेड़ छोटे है तबतक किसी भी पशु का नर्सरी में चरना खतरनाक हो सकता है यहां सिर्फ बकरी पर सवाल करना गरीबों के पशु के साथ अन्याय है।
    कभी कभी बकरी पलकों के हाथ में कुल्हाड़ी देखकर विद्वान जन अंदाज लगाते हैं की पेड़ को काट कर बकरी का चारा प्राप्त होता है अतः जंगल का नाश का कारण बकरी है।
    प्रथम दृष्टया ये आरोप सही प्रतीत होता है लेकिन जरा गहरे में समझदार बकरी पालकों से बात करना आवश्यक है ।  सामन्यतः बकरी पालकों की कुल्हाड़ी का धार वाला हिस्सा पौने से सवा इंच होता है , इस कुल्हाड़ी से एक आम चार फीट के डायमीटर वाले ताने को कटाने में पूरा जोर लगाने पर भी 4 से 5 घंटे लग जाएंगे, वस्तुतः काटना मुश्किल है ।  कुछ पेड़ के टहनियों की कांट छांट आवश्यक है ताकि ज्यादा घनी व् सही रूप से टहनी व् ताने का विकास हो सके , उस हद तक ये कार्य पेड़ के हित में है । कई अनुसंधानों से साबित हो चुका है कि चारा पेड़ जैसे बबूल, सुबबूल , नीम , पीपल, बरगद ,गुलर आदि के सही काट छांट से पत्ते  टहनी ज्यादा घने व् चारा के ज्यादा मात्रा पाप्त होती है । इसी अरह जंगल की लताओं के साफ करना जमीन पर उगे अन्य पौधे तक सूर्य की रोशनी के लिए आवश्यक है ताकि कुछ लताएं रास्ता अवरुद्ध कर दुसरे जमीन स्तर के पौधे व् लता के विकास को कुंठित न कर सकें । 
    जमीन पर गिरे पेड़ के पत्तों को अगर बकरी नहीं खाएगी तो सूखे पत्ते आग के कारन बनकर जंगल को क्षति पंहुचा सकते है । इन पत्तों और चारा के बदले बकरी अति उत्तम खाद के रूप में मिगनी या लेंडी वापस जमीन को प्रदान कराती है जो पौधों के विकास के लिए आवश्यक है । बकरी के पेशाब और मिगनी में नाइट्रोजन व फस्फोरस  की काफी मात्रा होती है । 
    बकरी कई पौधों के बीज को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने तथा उसे अपने पेट में अम्ल से तोड़कर सुसुप्त अवस्था को समाप्त कराती है ताकि उनमे अंकुरण व् नए पौधे का जन्म संभव हो सके। इस मुद्दे पर खुली बहस, गहन चर्चा तथा लम्बे समय के शोध की आवश्यकता है अन्यथा आनन् फानन में निष्कर्ष निकालना एक बड़ी भूल हो सकती है। यहां ये भी उल्लेख करना जरुरी है कि जंगल या पेड़ पौधों तथा बकरी पालन के बीच के एक मजबूत संबंध है । 
    दरअसल आज बकरी पालक एक मात्र ऐसा समुदाय है जिसका हित पेड़ लगाने तथा संरक्षण में सीधे रूप से दीखता है।  गाय व भैंस आज सिर्फ दाना व् खेत की फसलों के उत्पाद पर निर्भर हैं , पेड़ पौधों और पत्तों से उनका कोई संबंध नहीं है। सवाल है पेड़ लगाना तथा रक्षा करना उन्ही के द्वारा संभव है जिनकी आजीविका इस पर निर्भर है। बकरी पालक शायद वो समुदाय है जो आज पेड़ तथा पत्तों से सबसे ज्यादा लाभ लेते है ।  इसे समझाने के लिए द गोट ट्रस्ट ने राजस्थान के 100 ऐसे गांव का सर्वे किया जहाँ बकरी पालन परपरागत रूप से होता है तथा आजीविका में महत्वपूर्ण हिस्सा है।  इस तरह 100 ऐसे गांव लिए गए जहां बकरी पालन बहुत छोटे स्तर पर या नगण्य है। ऐसा पाया गया कि 75 प्रतिशत ऐसे गाँव जहाँ बकरी पालन होते है आज पेड़ के मामले में काफी गहन पेड़ लगा रहे है तथा गाँव में हरियाली है, इसके विपरीत बकरी न पालने वाले गाँव में ऐसे सिर्फ 27 प्रतिशत गाँव में पाया गया । 
    ये अध्ययन द गोट ट्रस्ट के बकरी पालन और पेड़ बचाव मुहीम का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया है । अगर बात पानी संरक्षण , वायु प्रदुषण तथा मृदा संरक्षण पर हो तो पानी के मामले में बकरी शायद ऊंट के बाद सबसे किफायती पशु है जो पानी को किफायत से इस्तेमाल करता है।  अन्य घरेलु पशु जैसे गाय, भैंस की तुलना में बकरी न परिवार से पानी लाकर पिलाने के अपेक्षा करता है न ज्यादा पानी के आवश्यकता होती है।
    कई परिस्थितियों में बकरी पर मृदा को ढीला करने तथा क्षरण को बढ़ाने का आरोप लगाया जाता है ।  यहाँ यह समझाना आवश्यक है कि बकरी जमीन के छः इंच ऊपर का चारा ही पसंद कराती है जबकि घास का निचला हिस्सा जो जमीन को पकड़ता है उसे छ इंच से ऊपर कोई फायदा नहीं होता ।  बकरी का वजन अन्य पशुओं (गाय, भैंस )के तुलना में काफी कम होता है अतः दबाब भी कम पड़ता है। 
    दरअसल बकरी पालन से व्यावहारिक रूप से खेती वाले किसान परेशान होते है क्योंकि खुली चराई में बकरी खेती के फसल और झाड़ी में अन्तर नहीं समझता तथा मानव के लिए उपयोगी फसल व् सब्जी का भक्षण कर लेता है। ये बात हालाँकि सामान्य रूप से अन्य पशुओं के लिए भी उतना ही सही है क्योंकि जंगली या पालतू अन्य पशु भी इन फसलों को खा जातें है ।
    पूरी चर्चा से स्पष्ट है कि बकरी खुद में पेड़ नाशक या विनाशक पशु नहीं है , इसका असर बंकि पशु जैसा ही है और संतुलन आवश्यक है ।  समस्या का संधान बकरी को बदनाम करने या बकरी पालकों को कोसने में नहीं उनके साथ कार्य कर सही रणनीति निर्माण में हैं। समाज की मुख्य धारा के लोग, संस्था व् विद्वानजनों को बकरी पालकों के साथ एक अर्थपूर्ण संवाद, सहभागिता बनाकर बकरी और पेड़ संरक्षण के रिश्ते को मजबूत किया जा सकता है।  आज बकरी को अधिक उत्पादक बनाकर , संख्या नियंत्रित कर , तथा बकरी पालकों के साथ मिलकर इस आजीविका की संभावना को क्षमता को मजबूत करना होगा। आवश्यकता उनके साथ मिलकर कार्य करने की है, बंद घरों में कोसने की नहीं। आजीविका का ये महत्वपूर्ण साधन सदियों से उपेक्षा का रहा है अब और देर शायद बहुत देर न हो जाए। 








चमत्कारिक गुणों से भरपूर है बकरी का दूध
दू ध मनुष्य के भोजन का एक आवश्यक हिस्सा सदियों से रहा है। लेकिन एक सामान्य इंसान के लिए यह एक दिलचस्प तथ्य है कि बकरी का दूध किसी भी समय निकाला जा सकता है और दूध दुहने मे थोड़ी देर होने से दूध उत्पादन पर अन्तर नही पड़ता है। इस खूबी की वजह से ही बकरी को मोबाइल मिल्क वेंडिंग मशीन या चलता-फिरता फ्रिज भी कहा जाता है। ऐतिहासिक साक्ष्यों से यह पता चलता है कि मानवीय सभ्यता के प्रारंभिक काल से ही बकरी मानव की सहचर रही है। बकरी का दूध अपने विशिष्ठ गुणों के कारण सदियों से भारतीय ग्रामीण समाज में चिकित्सा के साथ ही पोषक आहार की तरह इस्तेमाल होता आया है। राष्ट पिता महात्मा गांधी ने बकरी के दूध को अपने आहार में शामिल किया व बकरी को गरीबों के गाय की संज्ञा दी।    इस समय पूरे विश्व में लगभग 921 मिलियन बकरियां हैं। इनमें से 90 फीसदी बकरियां विकासशील मुल्कों में पाई जाती हैं। जिसमें से अकेले एशियाई मुल्कों में ही 60 फीसदी बकरियां पाई जाती हैं। बकरियों की विभिन्न नस्लों में से 26 फीसदी नस्लें एशियाई देशों में हैं। बकरी से होने वाली दूध की पैदावार में 59 फीसदी दूध एशियाई मुल्कों से आता है। इसके बावजूद दिलचस्प तथ्य यह है कि एशिया में कुल उपयोग होने वाले दुध में बकरी दूध की मात्रा केवल 3.6 फीसदी है। इन बकरियों की एशिया का समाजिक और आर्थिक जीवन में बडी भूमिका है। 
    आमतौर पर बकरी को गरीब आदमी की गाय कहा जाता है। इसकी वजह है कि इसे ज्यादातर गरीब तबके के लोग ही पालते हैं। लेकिन ऐसा कहना इस पशु के गुणों को कम कर आंकने जैसा है। वृहद आर्थिक स्तर पर भी देखा जाए तो केवल भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में बकरी के योगदान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। देश भर में बकरी की आबादी करीब 15.4 करोड़ है और इस पूरी आबादी से प्राप्त होने वाले मांस, दूध एवं अन्य उत्पादों की अनुमानित कीमत 22,138 करोड़ रुपये सालाना है। इसमें करीब 12,000 करोड़ रुपये का मांस, 5,500 करोड़ रुपये मूल्य का दूध, 800 करोड़ रुपये की खाल और करीब 1,600 करोड़ रुपये की खाद मिलती है। बकरी के दूध उत्पादन की विकास रफ्तार काफी तेज रही है और 2002 से 2011 के बीच यह 36.4 लाख टन से बढ़कर करीब 46 लाख टन हो गया। पर विडंबना यह है कि बच्चों व बुढों के लिए सर्वोत्तम आहार माने जाने वाला बकरी का दूध आज भी बाजार में उपलब्ध नहीं है।
    बकरी के दूध में वसा यानी फैट के कण बहुत छोटे होते हैं जिससे ये सुपाच्य होते हैं। ज्यादा आसानी से पचने वाले यह वसीय अम्ल उच्च रक्तचाप, मधुमेह, क्षयरोग और कैंसर आदि रोगों के इलाज में उपयोगी होता है। बकरी के दूध में 35 फीसदी वसा मध्यम प्रकार की होती है जबकि गाय के दूध में ये मात्र 17 फीसदी होती है। यही वजह है कि इसे गाय के दूध से हल्का माना जाता है और यह दूध मोटापा नियंत्रित करने में सहयोगी होता है। यही नहीं बकरी के दूध में प्रोटीन और लाभप्रद अमीनो ऐसिड का संयोजन बेहतर होता है, जो इसे अनुत्तेजक विशेषता प्रदान करते हैं और इससे संक्रमणों के खिलाफ शरीर की प्रतिरोधी क्षमता भी बढ़ती है। असल में बकरी के दूध से उच्च स्तर का 6 से 10 आवश्यक अमीनो एसिड प्राप्त होता है।
    बकरी के दूध में गाय के दूध की तुलना में लेक्टोज (शर्करा) की मात्रा कम होती है। लेक्टोज को न पचा पाने वाले लोग भी बकरी का दूध पी सकते हैं। नियमित रूप से बकरी का दूध पीने से एनीमिया यानी खून की कमी से पीडित मरीजों के स्वास्थ्य में सुधार होता है। यह दूध हीमोग्लोबिन बनने में मदद करता है।
 असल में बकरी के दूध की रासायनिक संरचना काफी हद तक मां के दूध के जैसा होती है और उसी की तरह सुपाच्य भी। बकरी का दूध बीमार बच्चे, बूढ़े तथा घाव व हड्डी की समस्याओं में अति उपयोगी है । खुले में चरते हुए बकरी कई प्रकार की जड़ी बूटियों का सेवन करती है, जो इनके दूध में रिसकर मनुष्य को रोग से लड़ने की क्षमता प्रदान करते हैं। साफ, स्वस्थ तथा बोक (नर बकरा) से अलग रखे बकरी के शुद्ध दूध में कोई गंध नहीं होती तथा इसे छोटे बच्चे इलायची फ्लेवर में चाव से पीते हैं।
    बकरी के एक लीटर दूध में 32 ग्राम प्रोटीन होता है। स्तनपान कराने वाली महिलाओं की 70 फीसदी जरूरतों को यह दूध पूरा कर देता है। 11 वर्ष के बच्चे के शरीर की तमाम जरूरतों के लिए बकरी का यह दूध पर्याप्त होता है। वहीं रोजमर्रा की जरूरतों के लिए 1.7 ग्राम कैल्शियम प्रति लीटर दूध प्राप्त होता है।     स्पेन के ग्रेनाडा विश्वविद्यालय के एक अध्ययन के मुताबिक बकरी के दूध में मौजूद वसा कोलेस्ट्रोल का स्तर कम कर देता है और यह दिल के रोगों को दूर रखता है। शोध में शामिल वैज्ञानिकों का दावा है कि ऐसे लोग जो ओस्टियोपोरोसिस या लंबे समय से आयरन की कमी व उच्च कोलेस्ट्राल से जूझ रहे हैं, वे बकरी के दूध को विकल्प बना सकते हैं।
    एक वैज्ञानिक अनुसंधान में यह बात भी सामने आई है कि बकरी का दूध एड्स के मरीजों की प्रतिरोधक क्षमता बनाए रखने में मददगार होता है। कुल नौ महिने तक एड्स के मरीजों पर बकरी के दूध के प्रभाव का अध्ययन किया गया और पाया गया कि बकरी का दूध पीने वाले मरीजों में शुरूआती माह में ही सीडी 4 काउंट्स में उल्लेखनीय प्रगति हुई। अनुसंधान में यह भी पता चला है कि अन्य दुधारू पशुओं के दूध के मुकाबले बकरी के दूध में मौजूद करीब तीन गुना अधिक सेलेनियम की मात्रा रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित करने में प्रमुख भूमिका निभाती है।
    देश के ग्रामीण इलाकों में बकरी पालन पारंपरिक रूप से एक बडा व्यवसाय रहा है। कई जगह बकरों की बलि का धार्मिेक रिवाज भी है। स्वास्थ्य लाभ और अन्य कई उपचारात्मक वजहों से चिकित्सक  इसका उपयोग करने की सलाह देते हैं। शायद इन्हीं वजहों से अपनी महान प्राचीन सभ्यता और विरासत के लिए मशहूर पिरामिडों के देश मिस्त्र में बकरी को एक पवित्र पशु के रूप में देखा जाता है और उसका धार्मिक महत्व है।





साथियों
राजग सरकार ने भूमि अधिग्रहण अध्यादेश दोबारा जारी कर दिया। पुराना अध्यादेश बीते पांच अप्रैल को समाप्त होने वाला था। उसके स्थान पर लाया गया बिल सरकार राज्यसभा में बहुमत के अभाव में पारित नहीं करा पाई। इसलिए नया अध्यादेश जारी करना पड़ा। संसद से लेकर सड़क तक भूमि अधिग्रहण पर हंगामा बरपा है।

आज के भारत में भूमि एक बड़ा मुद्दा है। नियोजन का आभाव व जनसंख्या का दबाव साथ ही मिथकीय चरित्र सुरसा की तरह बढ़ती  बेरोजगारी ने भूमि पर निर्भरता व दबाव बढ़ा दिया है।
ऐसे में यह जरूरी है कि जीविका के लिए वैकल्पिक मार्ग तलाशे जाएं। जीविका का शाब्दिक अर्थ है एक ऐसा व्यवसाय, जिसके द्वारा जीवन में आगे बढ़ने एवं उन्नति के अवसरों का लाभ उठाया जा सके। यह मात्र एक कोरा शब्द नहीं है, इससे अभिप्राय मात्र एक रोजगार का चयन नहीं है। इसका तात्पर्य उन विभिन्न पदों से हैं, जो क्रियाशील व सार्थक समाज का निर्माण कर सके। व्यापक अर्थों में जीविका किसी समाज व व्यक्ति की जीवन संरचना का एक महत्वपूर्ण पक्ष है। बकरी पालन एक ऐसा व्यवसाय है जिसे कम लागत, कम पूँजी व अपेक्षाकृत कम जगह में किया जा सकता है। यह किसान को आर्थिक रूप से सुदृढ़ व शारीरिक रूप से स्वस्थ बनाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
असल में बकरी एक छोटा जानवर है, जिसे सरलतापूर्वक पाला जा सकता है। इन्हें दूध व मांस के लिए भूमिहीन तथा सीमांत कृषकों द्वारा पाला जाता है। बकरी की मेंगनी व मूत्र जो बिछावन पर एकत्र होते हैं, एक अच्छे खाद की तरह उपयोग में आते हैं। निश्चय ही इस तरह के प्रयोगों से भूमि पर निर्भरता कम होगी व हम स्वावलंबी समाज की दिशा में बढ़ सकेंगे।
साथियों
एक ऐसे दौर में जब सूचना क्रांति परिपक्वता की नई ऊंचाई छू रही हो, दुनिया को जानने समझने के अनंत साधन आपकी मुठ्ठी में हों, सूचना का विस्फोटक संसार आपके सामने खुला हो तो ऐसे में एक स्वाभाविक सवाल उठ खडा होता है कि फिर एक नई पत्रिका ’मेरी बकरी, मेरा गांव‘ क्यों ? और इस तरह की नई पत्रिका की सार्थकता क्या है?

इसका पहला तो जवाब यह है कि तथाकथित मुख्यधारा की मीडिया में ग्रामीण समाज और उसके असल मुद्दों के लिए कोई स्पेस नहीं है। दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि ग्रामीण समुदाय की जीविका व खाद्य सुरक्षा मुख्यतः कृषि, पशुुपालन, वन संसाधन व मजदूरी पर आधारित है। मजदूरी के बाद कृषि जीविका का सबसे बड़ा स्त्रोत है लेकिन दुर्भाग्य से आज भी गरीब भारतीय किसान खेती के लिए मानसून की ओर ही देखता है और शुष्क प्रदेश व वर्षा आधारित क्षेत्र में ये खेती ‘मौसम की मार के साथ जुआ’ सिद्ध होती है। लगातार घटते कृषि भूमि या व मानसून की बदलती स्थिति गरीबों को बुरी तरह से प्रभावित करती है। पशुुपालन भी एक हद तक कृषि पर आधारित व्यवसाय है लेकिन लघु पशुु जैसे बकरी की निर्भरता बड़े पशुु जैसे गाय-भैस से अपेक्षाकृत कम है। ऐसे में बकरी आधारित आजीविका ग्रामीण व्यवस्था की धुरी बन सकती है। कम पूंजी से शुरू होने वाले बकरी पालन व्यवसाय के माध्यम से पिछड़ी एंव भूमि विहीन वर्ग की महिलाओं के संपूर्ण ग्रामीण जीवन में एक सकारात्मक बदलाव लाया जा सकता है और बकरी को गरीबी से लड़ने के लिए एक कारगर हथियार बनाया जा सकता है।
द गोट ट्रस्ट ने अपनी छोटी सी यात्रा में ग्रामीण जीवन की इसी ऊर्जा को समझने की कोशिश की है। ‘मेरी बकरी, मेरा गांव‘ इसी यात्रा के क्रम में संवाद का एक नया मंच है। इसके जरिए हम उम्मीद और ग्रामीण उर्जा के नए किस्सों के साथ ही अपनी साझा विरासत के नए हिस्सों को भी तलाशेंगे।

Saturday, 14 March 2015